Thursday, May 5, 2011

सैनी समाज का इतिहास

अलका सैनी,चंडीगढ़

सैनी भारत की एक योद्धा जाति है. सैनी, जिन्हें पौराणिक साहित्य में शूरसैनी के रूप में भी जाना जाता है, उन्हें अपने मूल नाम के साथ केवल पंजाब और पड़ोसी राज्य हरियाणा, जम्मू और कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में पाया जाता है. वे अपना उद्भव यदुवंशी]सूरसेन वंश के राजपूतों से देखते हैं, जिसकी उत्पत्ति यादव राजा शूरसेन से हुई थी जो कृष्ण और पौराणिक पाण्डव योद्धाओं, दोनों के दादा थे. सैनी, समय के साथ मथुरा से पंजाब और आस-पास की अन्य जगहों पर स्थानांतरित हो गए.

प्राचीन ग्रीक यात्री और भारत में राजदूत, मेगास्थनीज़ का परिचय भी सत्तारूढ़ जाति के रूप में जाती से इसके वैभव दिनों में हुआ था जब इनकी राजधानी मथुरा हुआ करती थी. एक अकादमिक राय यह भी है कि सिकंदर महान के शानदार प्रतिद्वंद्वी प्राचीन राजा पोरस, कभी सबसे प्रभावी रहे इसी यादव कुल के थे. मेगास्थनीज़ ने इस जाति को सौरसेनोई के रूप में वर्णित किया है.

राजपूत से उत्पन्न होने वाली पंजाब की अधिकांश जातियों की तरह सैनी ने भी तुर्क-इस्लाम के राजनीतिक वर्चस्व के कारण मध्ययुगीन काल के दौरान खेती को अपना व्यवसाय बनाया, और तब से लेकर आज तक वे मुख्यतः कृषि और सैन्य सेवा, दोनों में लगे हुए हैं. ब्रिटिश काल के दौरान सैनी को एक सर्वाधिक कृषि जनजाति के रूप में और साथ ही साथ एक सैन्य वर्ग के रूप में सूचीबद्ध किया गया था.

सैनियों का पूर्व ब्रिटिश रियासतों, ब्रिटिश भारत और स्वतंत्र भारत की सेनाओं में सैनिकों के रूप में एक प्रतिष्ठित रिकॉर्ड है. सैनियों ने दोनों विश्व युद्धों में लड़ाइयां लड़ी और 'विशिष्ट बहादुरी' के लिए कई सर्वोच्च वीरता पुरस्कार जीते.] सूबेदार जोगिंदर सिंह, जिन्हें 1962 भारत-चीन युद्ध में भारतीय-सेना का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार, परमवीर चक्र प्राप्त हुआ था, वे भी सहनान उप जाति के एक सैनी थे.

ब्रिटिश युग के दौरान, कई प्रभावशाली सैनी जमींदारों को पंजाब और आधुनिक हरियाणा के कई जिलों में जेलदार, या राजस्व संग्राहक नियुक्त किया गया था.

सैनियों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी हिस्सा लिया और सैनी समुदाय के कई विद्रोहियों को ब्रिटिश राज के दौरान कारावास में डाल दिया गया, या फांसी चढ़ा दिया गया या औपनिवेशिक पुलिस के साथ मुठभेड़ में मार दिया गया.

हालांकि, भारत की आजादी के बाद से, सैनियों ने सैन्य और कृषि के अलावा अन्य विविध व्यवसायों में अपनी दखल बनाई. सैनियों को आज व्यवसायी, वकील, प्रोफेसर, सिविल सेवक, इंजीनियर, डॉक्टर और अनुसंधान वैज्ञानिक आदि के रूप में देखा जा सकता है. प्रसिद्ध कंप्यूटर वैज्ञानिक, अवतार सैनी जिन्होंने इंटेल के सर्वोत्कृष्ट उत्पाद पेंटिअम माइक्रोप्रोसेसर के डिजाइन और विकास का सह-नेतृत्व किया वे इसी समुदाय के हैं. अजय बंगा, भी जो वैश्विक बैंकिंग दिग्गज मास्टर कार्ड के वर्तमान सीईओ हैं एक सैनी हैं. लोकप्रिय समाचार पत्र डेली अजीत, जो दुनिया का सबसे बड़ा पंजाबी भाषा का दैनिक अखबार है उसका स्वामित्व भी सैनी का है.

पंजाबी सैनियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन आदि जैसे पश्चिमी देशों में रहता है और वैश्विक पंजाबी प्रवासियों का एक महत्वपूर्ण घटक है.

सैनी, हिंदू और सिख, दोनों धर्मों को मानते हैं. कई सैनी परिवार दोनों ही धर्मों में एक साथ आस्था रखते हैं और पंजाब की सदियों पुरानी भक्ति और सिख आध्यात्मिक परंपरा के अनुरूप स्वतन्त्र रूप से शादी करते हैं.

अभी हाल ही तक सैनी कट्टर अंतर्विवाही क्षत्रिय थे और केवल चुनिन्दा जाति में ही शादी करते थे. दिल्ली स्थित उनका एक राष्ट्रीय स्तर का संगठन भी है जिसे सैनी राजपूत महासभा कहा जाता है जिसकी स्थापना 1920 में हुई थी.

इतिहास

" The above group of Yadavas came back from Sindh to Brij area and occupied Bayana in Bharatpur district. After some struggle the 'Balai' inhabitants were forced by Shodeo and Saini rulers to move out of Brij land and thus they occupied large areas.".[१६]

– Encyclopaedia Indica: India, Pakistan, Bangladesh, Volume 100, pp 119 - 120

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प्राचीन भारत के राजनीतिक मानचित्र में ऐतिहासिक सूरसेन महाजनपद. सैनियों ने इस साम्राज्य पर 11 ई. तक राज किया (मुहम्मदन हमलों के आरंभिक समय तक). [

भौगोलिक वितरण और तुलनात्मक जनसंख्या

1881 की जनगणना के अनुसार, जो सबसे प्रामाणिक रिकॉर्ड है क्योंकि यह उस समय से पहले की है जब हर प्रकार के समूहों ने सैनी पहचान को अपनाया, सैनी अविभाजित पंजाब के बाहर नहीं मिलते थे जिसका वर्तमान अर्थ निम्नलिखित राज्यों से है:

  • पंजाब
  • हरियाणा
  • हिमाचल प्रदेश
  • जम्मू-कश्मीर

ए. ई. बार्स्टो के अनुसार भौगोलिक वितरण

ए. ई. बार्स्टो के अनुसार 1911 की जनगणना के आधार पर सैनियों की कुल जनसंख्या केवल 113,000 थी और उनकी उपस्थिति मुख्य रूप से दिल्ली, करनाल, अंबाला, और लयालपुर (पाकिस्तान में आधुनिक फैसलाबाद) जिला, जालंधर और लाहौर प्रभागों और कलसिया, नाहन, नालागढ़, मंडी कपूरथला और पटियाला राज्यों तक सीमित थी. उनके अनुसार, उनमें से केवल 400 मुस्लिम थे और बाकी हिंदू और सिख थे. 1881 की जनगणना के अनुसार, सबसे बड़ा सैनी कुल जालंधर डिवीजन के होशियारपुर जिले में था जहां ज़मीन और प्रभाव के मामले में शासन की स्थिति में थे. लाहौर डिवीजन में वे मुख्यतः गुरदासपुर में केंद्रित थे जहां सलाहरिया (सलारिया), सबसे बड़े सैनी कुल के रूप में लौट रहे थे. जम्मू क्षेत्र के सैनी, पड़ोस के गुरदासपुर जिले के सैनियों का अनिवार्य रूप से हिस्सा थे.

ब्रिटिश काल के पंजाब के डिवीजन का वर्तमान परस्पर-संदर्भ

ब्रिटिश पंजाब के जालंधर डिवीजन में निम्नलिखित जिले शामिल थे: कांगड़ा, होशियारपुर, जालंधर, फिरोजपुर, और लुधियाना. लाहौर डिवीजन में निम्नलिखित जिले शामिल थे: लाहौर, अमृतसर, सियालकोट शेखपुरा, गुजरावाला और गुरदासपुर. वर्तमान का रोपड़ जिला विभाजन से पहले अंबाला जिले में था. इसलिए रोपड़ के सैनियों को औपनिवेशिक खातों में उस जिले में शामिल किया गया.

यह बार्स्टो के विवरण से स्पष्ट है कि सैनी की आबादी का अधिकांश हिस्सा उन क्षेत्रों में था जो अब वर्तमान का पंजाब क्षेत्र है, और आबादी का छोटा हिस्सा वर्तमान हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में आता था, और उत्तर प्रदेश या राजस्थान में सैनी की कोई जनसंख्या नहीं थी. 1881 की जनगणना में सहारनपुर और बिजनौर में खुद को सैनी में शामिल करने वाले लोगों को सैनी की श्रेणी से 1901 की जनगणना के बाद पिछली जनगणना की खामियों के उजागर होने के बाद बाहर कर दिया गया.

1881 की जनगणना के अनुसार सापेक्ष जनसंख्या

सैनी की आबादी को आजादी के बाद से अलग से नहीं गिना गया है लेकिन उनकी आबादी अन्य समूहों की तुलना में कम है. 1881 के अनुसार सैनी की कुल जनसंख्या पूरे भारत में 137,380 से अधिक नहीं थी जो आगे चलकर 1901 की जनगणना में कम होकर 106,011 हो गई] उसी जनगणना में खत्री की कुल जनसंख्या 439089,जबकि 1881 जनगणना के अनुसार जाट की जनसंख्या सम्पूर्ण भारत में 2630,994 थी. इस प्रकार सैनी की आनुपातिक आबादी लगभग खत्री से 1/4 और जाट से 1/25 है. 1896 में लिखे एक मानव जाति विज्ञान की अन्य समकालीन आधिकारिक कृति के अनुसार, जाट जनसंख्या 4,625,523 थी और सैनी जनसंख्या 125,352 थी, जिससे तुलनात्मक अनुपात 1:37 हो गया. यहां तक कि 1881 की जनगणना के आधार पर भी हर सैनी पर 4 खत्री और 25 जाट के साथ यह स्पष्ट है कि संख्यानुसार सैनी अल्पसंख्यक समूहों के अंतर्गत हैं जब इनकी तुलना वर्तमान समय के भारत के पंजाब और हरियाणा के सबसे महत्वपूर्ण जातीय समूहों से की जाती है.

[संपादित करें]ब्रिटिश पंजाब के विभिन्न भागों में प्रमुख सैनी गांव और जागीर

जालंधर जिले के 1904 के औपनिवेशिक रिकॉर्ड के अनुसार सैनी के स्वामित्व में नवाशहर की पूर्वी सीमा के पास और तहसील के दक्षिण पश्चिम में कई गांव थे.

ब्रिटिश काल के जालंधर और नवाशहर तहसील के उन प्रमुख गांवों की सूची निम्नलिखित है जिन पर सैनी का आंशिक या पूर्ण स्वामित्व था:

जालंधर और नवाशहर तहसील (ब्रिटिश पंजाब) रोपड़

  • बेहरोन माजरा (चमकौर साहिब के पास)
  • बीरमपुर (जिला. भोगपुर के पास होशियारपुर) पूरा गांव.
  • लधना (पूरा गांव)
  • झीका (पूरा गांव)
  • सुज्जोंन (पूरा गांव)
  • सुरपुर (पूरा गांव)
  • पाली (पूरा गांव)
  • झिकी (पूरा गांव)
  • भरता (शहीद भगत सिंह नगर के पास)
  • लंग्रोया (शहीद भगत सिंह नगर के पास)
  • सोना (शहीद भगत सिंह नगर के पास)
  • मेहतपुर (शहीद भगत सिंह नगर के पास)
  • अलाचौर (शहीद भगत सिंह नगर के पास)
  • कहमा (शहीद भगत सिंह नगर के पास)
  • बंगा शहर (बंगा सैनियों का आखिरी नामा है)(शहीद भगत सिंह नगर के पास)
  • चक (पूरा गांव)
  • खुर्द (पूरा गांव)
  • दल्ली (पूरा गांव)
  • गेहलर (पूरा गांव)
  • सैनी मजरा (पूरा गांव)
  • देसु माजरा, मोहाली के निकट (पूरा ग्राम)
  • रोपड़ के पास हवाली (पूरा ग्राम)
  • लारोहा (लगभग पूरा गांव)
  • नांगल शहीदान (लगभग पूरा गांव)
  • भुन्दियन (लगभग पूरा गांव, 5/6)
  • उरपुर (भाग 3/4 या 75%)
  • बाजिदपुर (भाग 3/4 या 75%)
  • पाली ऊंची (भाग- 1/3 या 33%)
  • नौरा (भाग- 1/2 या 50%)
  • गोबिंदपुर (भाग- 1/4 या 25%)
  • काम (भाग- 1/4 या 25%)
  • दीपालपुर (भाग -1/2 या 50%)
  • बालुर कलन (अनुपात ज्ञात नहीं)
  • खुरदे (ज्ञात नहीं अनुपात)
  • दुधाला (भाग ज्ञात नहीं अनुपात)
  • दल्ला (1/2 या 50%)
  • जन्धिर (1/2 या 50%)
  • चुलंग (1/3 या 33%)
  • गिगंवल (1/2 या 50%)
  • लसरा (1/2 या 50%) नोट: यह गांव फिल्लौर तहसील में है.
  • अड्डा झुन्गियन (पूरा गांव)
  • खुरामपुर (75%) तहसील फगवाड़ा
  • अकालगढ़ (नवा पिंड) (75%) तहसील फगवाड़ा
  • फादमा (तहसील होशियारपुर)
  • भुन्ग्रानी (होशियारपुर तहसील)
  • हरता (तहसील होशियारपुर) 90%
  • बदला (तहसील होशियारपुर) 90%
  • मुख्लिआना (तहसील होशियारपुर) 90%
  • राजपुर (तहसील होशियारपुर) 90%
  • कडोला (आदमपुर के निकट)
  • राजपुर (तहसील होशियारपुर)
  • टांडा (तहसील होशियारपुर)

ब्रिटिश पंजाब के जालंधर जिले में उपरोक्त गांवों के अलावा, सैनी, फगवाड़ा में भी भूस्वामी या जमींदार थे. इस बात पर विधिवत ध्यान दिया जाना चाहिए कि जालंधर जिले की सैनी जनसंख्या 1880 के रिकॉर्ड के अनुसार केवल 14324 थी. ] इसलिए उपरोक्त सूची में पंजाब में कुल सैनी भूस्वामियों का एक छोटा सा अंश ही शामिल हैं. सबसे बड़ी सैनी जागीर और गांव होशियारपुर में और होशियारपुर जिले के दासुया तहसील में थे जहां वे अधिक प्रभावशाली और अधिक संख्या में थे. अंबाला डिवीजन (जिसमें रोपड़ जिले शामिल है) में भी सैनी स्वामित्व वाले गांवों की एक बड़ी संख्या थी. गुरदासपुर जिले में 54 गांवों पर सैनी का स्वामित्व था.


धर्म


हिन्दू सैनी

हालांकि सैनी की एक बड़ी संख्या हिंदू हैं, उनकी धार्मिक प्रथाओं को सनातनी वैदिक और सिक्ख परंपराओं के विस्तृत परिधि में वर्णित किया जा सकता है. अधिकांश सैनियों को अपने वैदिक अतीत पर गर्व है और वे ब्राह्मण पुजारियों की आवभगत करने के लिए सहर्ष तैयार रहते हैं. साथ ही साथ, शायद ही कोई हिंदू सैनी होगा जो सिख गुरुओं के प्रति असीम श्रद्धा ना रखता हो.

होशियारपुर के आसपास कुछ हिन्दू सैनी, वैदिक ज्योतिष में पूर्ण निपुण है.

अन्य खेती करने वाले और योद्धा समुदायों के विपरीत, सैनियों में इस्लाम में धर्मान्तरित लोगों के बारे में आम तौर पर नहीं सुना गया है.

सिख सैनी

पंद्रहवीं सदी में सिख धर्म के उदय के साथ कई सैनियों ने सिख धर्म को अपना लिया. इसलिए, आज पंजाब में सिक्ख सैनियों की एक बड़ी आबादी है. हिन्दू सैनी और सिख सैनियों के बीच की सीमा रेखा काफी धुंधली है क्योंकि वे आसानी से आपस में अंतर-विवाह करते हैं. एक बड़े परिवार के भीतर हिंदुओं और सिखों, दोनों को पाया जा सकता है.

[1901 के पश्चात सिख पहचान की ओर जनसांख्यिकीय बदलाव

1881 की जनगणना में केवल 10% सैनियों को सिखों के रूप में निर्वाचित किया गया था, लेकिन 1931 की जनगणना में सिख सैनियों की संख्या 57% से अधिक पहुंच गई. यह गौर किया जाना चाहिए कि ऐसा ही जनसांख्यिकीय बदलाव पंजाब के अन्य ग्रामीण समुदायों में पाया गया है जैसे कि जाट, महतो, कम्बोह आदि. सिक्ख धर्म की ओर 1901-पश्चात के जनसांख्यिकीय बदलाव के लिए जिन कारणों को आम तौर पर जिम्मेदार ठहराया जाता है उनकी व्याख्या निम्नलिखित है:

  • ब्रिटिश द्वारा सेना में भर्ती के लिए सिखों को हिंदुओं और मुसलमानों की तुलना में अधिक पसंद किया जाता था. ये सभी ग्रामीण समुदाय जीवन यापन के लिए कृषि के अलावा सेना की नौकरियों पर निर्भर करते थे. नतीजतन, इन समुदायों से पंजाबी हिंदुओं की बड़ी संख्या खुद को सिख के रूप में बदलने लगी ताकि सेना की भर्ती में अधिमान्य उपचार प्राप्त हो. क्योंकि सिख और पंजाबी हिन्दुओं के रिवाज, विश्वास और ऐतिहासिक दृष्टिकोण ज्यादातर समान थे या निकट रूप से संबंधित थे, इस परिवर्तन ने किसी भी सामाजिक चुनौती को उत्पन्न नहीं किया;
  • सिख धर्म के अन्दर 20वीं शताब्दी के आरम्भ में सुधार आंदोलनों ने विवाह प्रथाओं को सरलीकृत किया जिससे फसल खराब हो जाने के अलावा ग्रामीण ऋणग्रस्तता का एक प्रमुख कारक समाप्त होने लगा. इस कारण से खेती की पृष्ठभूमि वाले कई ग्रामीण हिन्दू भी इस व्यापक समस्या की एक प्रतिक्रिया स्वरूप सिक्ख धर्म की ओर आकर्षित होने लगे. 1900 का पंजाब भूमि विभाजन अधिनियम को भी औपनिवेशिक सरकार द्वारा इसी उद्देश्य से बनाया गया था ताकि उधारदाताओं द्वारा जो आम तौर पर बनिया और खत्री पृष्ठभूमि होते थे इन ग्रामीण समुदायों की ज़मीन के समायोजन को रोका जा सके, क्योंकि यह समुदाय भारतीय सेना की रीढ़ की हड्डी था;
  • 1881 की जनगणना के बाद सिंह सभा और आर्य समाज आन्दोलन के बीच शास्त्रार्थ सम्बन्धी विवाद के कारण हिंदू और सिख पहचान का आम ध्रुवीकरण. 1881 से पहले, सिखों के बीच अलगाववादी चेतना बहुत मजबूत नहीं थी या अच्छी तरह से स्पष्ट नहीं थी. 1881 की जनगणना के अनुसार पंजाब की जनसंख्या का केवल 13% सिख के रूप में निर्वाचित हुआ और सिख पृष्ठभूमि के कई समूहों ने खुद को हिंदू बना लिया.

विवाह


कठोर अंतर्विवाही

सैनी, कुछ दशक पहले तक सख्ती से अंतर्विवाही थे, लेकिन सजाती प्रजनन को रोकने के लिए उनके पास सख्त नियम थे. आम तौर पर नियमानुसार ऐसी स्थिति में शादी नहीं हो सकती अगर:]

यहां तक कि अगर लड़के की ओर से चार में से एक भी गोत लड़की के पक्ष के चार गोत से मिलता हो. दोनों पक्षों से ये चार गोत होते थे: 1) पैतृक दादा 2) पैतृक दादी 3) नाना और 4) नानी. यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि चचेरे या ममेरे रिश्तों के बीच विवाह असंभव था;

दोनों पक्षों में उपरोक्त किसी भी गोत के एक ना होने पर भी अगर दोनों ही परिवारों का गांव एक हो . इस स्थिति में प्राचीन सम्मान प्रणाली के अनुसार इस मामले में, लड़के और लड़की को एक दूसरे को पारस्परिक रूप से भाई-बहन समझा जाना चाहिए.

1950 के दशक से पहले, सैनी दुल्हन और दूल्हे के लिए एक दूसरे को शादी से पहले देखना संभव नहीं था. शादी का निर्णय सख्ती से दोनों परिवारों के वृद्ध लोगों द्वारा लिया जाता था. दूल्हा और दुल्हन शादी के बाद ही एक दूसरे को देखते थे. अगर दूल्हे ने अपनी होने वाली दुल्हन को छिपकर देखने की कोशिश की तो अधिकांश मामलों में या हर मामले में यह सगाई लड़की के परिवार द्वारा तोड़ दी जाती है.

हालांकि 1950 के दशक के बाद से, इस समुदाय के भीतर अब ऐसी व्यवस्था नहीं है यहां तक कि नियोजित शादियों में भी.

[तलाक

ऐतिहासिक दृष्टि से

1955 के हिंदू विवाह अधिनियम से पहले, सैनी व्यक्ति के लिए अपनी पत्नी को तलाक देना संभव नहीं था. तलाक न के बराबर था और इसके खिलाफ बहुत मजबूत सामुदायिक निषेध था और कलंक था. बेवफाई के कारण के अलावा, एक सैनी के लिए यह संभव नहीं था कि वह बिना बहिष्कार का सामना किये और अपने पूरे परिवार के लिए कलंक मोल लेते हुए अपनी पत्नी को छोड़ दे.

लेकिन अगर एक सैनी आदमी अपनी पत्नी को बेवफाई या उसके भाग जाने पर उसे त्याग दे तो सुलह किसी भी परिस्थिति में संभव नहीं था. ऐसी स्थिति में परिणाम अक्सर गंभीर होते थे. इस प्रकार से आरोपित महिला को अपने अधिकांश जीवन बहिष्कार को झेलना पड़ता है. इस प्रकार से त्याग दी गई महिला से समुदाय का कोई भी अन्य आदमी शादी नहीं करेगा. कई मामलों में आरोपित के ऊपर सम्मान हत्या की काफी संभावना रहती है. हालांकि, सभी मामलों में गांव के बुजुर्गों द्वारा किसी भी महिला को दुर्भावनापूर्ण ससुराल वालों द्वारा गलत तरीके से आरोपित करने से रोकने के लिए हस्तक्षेप किया जाता था. ऐसे मामलों में पति का परिवार भी कलंक से बच नहीं पाता था. अतः इस तरह की स्थितियां बहुत कम ही सामने आतीं थीं, सिर्फ तभी जब कोई वास्तविक शिकायत होती.

वर्तमान स्थिति

हालांकि, सैनियों में वर्तमान में अब तलाक की संभावना होती है और इससे कलंक और बहिष्कार को कोई खतरा नहीं रहता.


विधवा पुनर्विवाह

ऐतिहासिक दृष्टि से, सैनियों के बीच विधवा पुनर्विवाह की संभावना, क्षत्रिय या राजपूत के किसी भी अन्य समुदाय की तरह नहीं थी.

लेविरैट विवाह संभव नहीं

सामान्यतया, लेविरैट शादी, या करेवा, सैनी में संभव नहीं था, और बड़े भाई की पत्नी को मां समान माना जाता था, और छोटे भाई की पत्नी को बेटी के समान समझा जाता है. यह रिश्ता भाई की मौत के बाद भी जारी रहता था. एक विवाहित पुरुष सदस्य की मृत्यु के बाद उसकी विधवा के देखभाल करने की जिम्मेदारी सामूहिक होती थी जिसे मृतक का भाई या चचेरे भाई (यदि कोई भाई जीवित नहीं है तो) द्वारा साझा किया जाता था. सैनी के स्वामित्व वाले गांवों में सघन सामाजिक ताने-बाने के कारण, विधवा और उसके बच्चों की देखभाल सामूहिक रूप से गांव के सामुदायिक भाईचारे (जिसे पंजाबी में शरीका कहा जाता था) द्वारा होती थी.

वर्तमान स्थिति

वर्तमान सैनी समुदाय में विधवा पुनर्विवाह के खिलाफ निषेध, खासकर अगर वे कम उम्र में विधवा हो गई हैं तो अब नहीं है या अब लगभग गायब हो गया है यहां तक की पंजाब में भी. हालांकि, गांव आधारित समुदाय में अभी भी कुछ प्रतिरोध किया जा सकता है.


विवाह अनुष्ठान

परंपरागत रूप से, सैनियों का विवाह वैदिक समारोह द्वारा होता रहा है जिसे सनातनी परंपरा के ब्राह्मणों द्वारा करवाया जाता है. हालांकि, 20वीं सदी में कुछ हिंदू परिवार, आर्य समाज आधारित वैदिक अनुष्ठानों को अपनाने लगे हैं, और सिख सैनियों ने आनंद कारज अनुष्ठान का चयन शुरू कर दिया है.


सैनी उप कुल

पंजाबी सैनी समुदाय में कई उप कुल हैं.

आम तौर पर सबसे आम हैं: अन्हे, बिम्ब (बिम्भ), बदवाल, बलोरिया, बंवैत (बनैत), बंगा, बसुता (बसोत्रा), बाउंसर, भेला, बोला, भोंडी (बोंडी), मुंध.चेर, चंदेल, चिलना, दौले (दोल्ल), दौरका, धक, धम्रैत, धनोटा (धनोत्रा), धौल, धेरी, धूरे, दुल्कू, दोकल, फराड, महेरू, मुंढ (मूंदड़ा) मंगर, मसुटा (मसोत्रा), मेहिंद्वान, गेहलेन (गहलोन/गिल), गहिर (गिहिर), गहुनिया (गहून/गहन), गिर्ण, गिद्दा, जदोरे, जप्रा, जगैत (जग्गी), जंगलिया, कल्याणी, कलोती (कलोतिया), कबेरवल (कबाड़वाल), खर्गल, खेरू, खुठे, कुहडा(कुहर), लोंगिया (लोंगिये),सागर, सहनान (शनन), सलारिया (सलेहरी), सूजी, ननुआ (ननुअन), नरु, पाबला, पवन, पम्मा (पम्मा/पामा), पंग्लिया, पंतालिया, पर्तोला, तम्बर (तुम्बर/तंवर/तोमर), थिंड, टौंक (टोंक/टांक/टौंक/टक), तोगर (तोगड़/टग्गर), उग्रे, वैद आदि.

हरियाणा में आम तौर पर सबसे आम हैं: बावल, बनैत, भरल, भुटरल, कच्छल, संदल (सन्डल), तोन्डवाल (टंडूवाल) आदि.

नोट: कुछ सैनी उप कुल डोगरा और बागरी राजपूतों के साथ अतिछादन करता है. कुछ सैनी गुटों के नाम जो डोगरा के साथ अतिछादन करते हैं वे हैं: बडवाल, बलोरिया, बसुता, मसुता, धानोता, सलारिया, चंदेल, जगैत, वैद आदि. ऐतिहासिक रूप से क्षेत्रीय सगोत्र विवाह और सामाजिक भेद भी समुदाय के भीतर था. उदाहरण के लिए, होशियारपुर और जालंधर के सैनी इन जिलों से बाहर विवाह के लिए नहीं जाते थे और खुद को उच्च स्तरीय का मानते थे. लेकिन इस तरह के प्रतिबंध हाल के समय में अब ढीले पड़ चुके हैं और अंतर-जातीय विवाह के मामलों में बढ़ोतरी हुई है विशेष रूप से एनआरआई सैनी परिवारों के बीच.

]अन्य व्यावसायिक जातियों एवं नृजातीय जनजातियों से विभेदित सैनी जनजाति

अराइन या रेइन से विभेदित सैनी

इबेट्सन, औपनिवेशिक नृवंशविज्ञानशास्त्री भी गलती से अरेन या रायेन को सैनी समझ बैठते हैं.

इबेट्सन लगता है व्यावसायिक समुदायों के साथ जातीय समुदायों में भ्रमित हो गए थे. भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण के अनुसार माली और अरेन, व्यावसायिक समुदाय हैं, जबकि सैनी एक भिन्न जातीय समुदाय नज़र आते हैं जिनकी उत्पत्ति एक ख़ास भौगोलिक स्थान और विशिष्ट समय पर हुई है जिसके साथ संयोजित है एक अद्वितीय ऐतिहासिक इतिहास जो उनकी पहचान को विशिष्ट बनाता है.


माली (नव-सैनी) से विभेदित सैनी

हरियाणा के दक्षिणी जिलों में और उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी 20वीं सदी में माली जाति के लोगों ने "सैनी" उपनाम का उपयोग शुरू कर दिया.]बहरहाल, यह पंजाब के यदुवंशी सैनियों वाला समुदाय नहीं है. यह इस तथ्य से प्रमाणित हुआ है कि 1881 की जनगणना] पंजाब से बाहर सैनी समुदाय के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती है और इबेट्सन जैसे औपनिवेशिक लेखकों के आक्षेप के बावजूद, सैनी और माली को अलग समुदाय मानती है. 1891 की मारवाड़ जनगणना रिपोर्ट ने भी राजपूताना में किसी 'सैनी' नाम के समुदाय को दर्ज नहीं किया है और केवल दो समूह को माली के रूप में दर्ज किया है. जिनका नाम है महूर माली और राजपूत माली जिसमें से बाद वाले को राजपूत उप-श्रेणी में शामिल किया गया है. राजपूत मालियों ने अपनी पहचान को 1930 में सैनी में बदल लिया लेकिन बाद की जनगणना में अन्य गैर राजपूत माली जैसे माहूर या मौर ने भी अपने उपनाम को 'सैनी' कर लिया.

पंजाब के सैनियों ने ऐतिहासिक रूप से कभी भी माली समुदाय के साथ अंतर-विवाह नहीं किया (एक तथ्य जिसे इबेट्सन द्वारा भी स्वीकार किया गया और 1881 की जनगणना में विधिवत दर्ज किया गया), या विवाह के मामले में वे सैनी समुदाय से बाहर नहीं गए, और यह वर्जना आम तौर पर आज भी जारी है. दोनों समुदाय, सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से भी अधिकांशतः भिन्न हैं.

औपनिवेशिक विवरणों में स्वीकार किए गए विभेद '

डेनजिन इबेट्सन के विवरण के अनुसार विभेद

यहां तक कि औपनिवेशिक जनगणना अधिकारियों ने जो सैनियों और मालियों को मिला देने के इच्छुक थे ताकि जटिल सैनी इतिहास और जाति पर आसानी से नियंत्रण कर सकें, उन्हें भी मजबूर हो कर इस टिप्पणी के साथ इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ा: "... कि उसी वर्ग की कुछ उच्च जातियां (सैनी)) उनके साथ (माली) शादी नहीं करेंगी.

लेकिन इस उभयवृत्ति के बावजूद औपनिवेशिक खातों में यह दर्ज है कि माली के विपरीत:

  • सैनियों ने मथुरा से राजपूत मूल का दावा किया.

सैनियों को एक "योद्धा जाति " के रूप में सूचीबद्ध किया गया था.

  • सैनी, आम खेती के अलावा केवल बागवानी खेती किया करते थे.
  • सैनी भू-स्वामी थे और कभी-कभी पूरे गांव का स्वामित्व रखते थे.
  • सैनी, माली के साथ शादी नहीं करते थे, और कहा कि, सिवाय शायद बिजनौर के (अब उत्तर प्रदेश में), उन्हें उत्तर पश्चिम प्रांत में माली पूरी तरह से अलग माना जाता था (एक तथ्य जिसके चलते उन्होंने 1881 की जनगणना में सैनी और माली को अलग समुदाय के रूप में दर्ज किया). इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि बिजनौर के इन तथाकथित सैनियों को 1901 की जनगणना में सैनी से बाहर रखा गया जब 1881 की जनगणना में हुई गलतियों और त्रुटिपूर्ण प्रस्तुतियों को अधिकारियों द्वारा पकड़ा गया.
  • सैनी, पंजाब के बाहर नहीं पाए गए.

जोगेंद्र नाथ भट्टाचार्य द्वारा 19वीं सदी की एक अन्य कृति में भी सैनी समूह को माली से पृथक समझा गया है.

एडवर्ड बाल्फोर के विवरण के अनुसार मतभेद

1885 में एक अन्य औपनिवेशिक विद्वान, एडवर्ड बाल्फोर ने स्पष्ट रूप से सैनी को माली से अलग रूप में स्वीकार किया है. ] जो बात अधिक दिलचस्प है वह यह है कि एडवर्ड बाल्फोर ने पाया कि सब्जी की खेती के अलावा सैनी काफी हद तक गन्ने की खेती में शामिल थे जबकि माली केवल बागवानी करते थे. एडवर्ड बाल्फोर का विवरण इस प्रकार आगे और पुष्टि प्रदान करता है, इबेट्सन के विवरण में निहित विरोधाभास के अलावा, कि सैनियों को औपनिवेशिक काल में मालियों से पूरी तरह से अलग समझा जाता था.

ईएएच ब्लंट के अनुसार मतभेद

ईएएच ब्लंट, जिन्होंने उत्तरी भारत की जाति व्यवस्था पर एक मौलिक काम का सृजन किया, सैनी को माली, बागबान, कच्ची और मुराओ से पूरी तरह से अलग समूह में रखा. उन्होंने सैनी को भू-स्वामी माना जबकि बाद के समूहों को मुख्यतः बागवानी, फूल और सब्जियों की खेती करने वाले बताया. ब्लंट के काम का महत्व इस बात में निहित है कि उनके पास अपने से पूर्व के सभी औपनिवेशिक लेखकों जैसे इबेट्सन, रिसले, हंटर आदि के कार्यों को देखने और उनकी विसंगतियों का पुनरीक्षण करने का लाभ था.

उत्तर उपनिवेशवादी विद्वानों द्वारा स्वीकार किया गया विभेद

पंजाब में माली और सैनी समुदाय के बीच अंतर के बारे में कोई भ्रम नहीं है और सैनी को कहीं भी माली समुदाय के रूप में नहीं समझा जाता है. लेकिन हरियाणा में, कई माली जनजातियों ने अब 'सैनी' उपनाम को अपना लिया है जिससे इस राज्य में और इसके दक्षिण की ओर सैनी की पहचान को उलझन में डाल दिया है. हरियाणा के माली और सैनी के बीच स्पष्ट अंतर बताते हुए 1994 में प्रकाशित एक एंथ्रोपोलॉजीकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट निम्नलिखित तथ्य उद्धृत करती है:

"उनमें से कई बड़े जमींदारों हैं. अतीत के दौरान इसके अलावा, माली समुदाय शाही दरबारों में कार्य करता था और मुख्य रूप से बागवानी का काम करता था, लेकिन सैनी दूसरों की सेवा नहीं करते थे; बल्कि वे स्वतंत्र किसान थे. अरेन, रेन, बागबान, माली और मलिआर ऐसे व्यक्तियों के निकाय का द्योतक हैं जो जाति के बजाय व्यवसाय को दर्शाते हैं...1) माली अन्य जातियों से भोजन स्वीकार करने में उतने कट्टर नहीं हैं जितने सैनी; 2) माली औरतों को खेतिहर मजदूर के रूप में श्रम करते देखा जा सकता था जो सैनी में नहीं होता था; 3) शैक्षिक रूप से, व्यवसाय के आधार पर और आर्थिक रूप से सैनी की स्थति माली से कहीं बेहतर थी, और 4) सैनी भू-स्वामी हैं और माली की तुलना में विशाल भूमि के स्वामी हैं."

Wednesday, May 4, 2011


सैनी भवन ( चंडीगढ़ )

सन १९८० में कुछ सैनी भाइयों द्वारा सैनी भवन के निर्माण के वास्ते चंडीगढ़ प्रशासन के सामने प्रस्ताव रखा गया तांकि उन्हें भवन निर्माण के लिए एक प्लाट अलाट हो सके . उनके प्रयासों द्वारा चंडीगढ़ प्रशासन ने उन्हें सेक्टर -२४ में उन्हें प्लाट नंबर १ और २ दे दिया जहाँ पर सैनी भवन का निर्माण किया गया .

सैनी भवन के निर्माण में कई साल लगे और सन १९८५ में यह भवन बन कर तैयार हो गया और इसका उदघाटन सरदार दिलबाग सिंह द्वारा किया गया जोकि उस समय पंजाब सरकार में कृषि मंत्री थे. उनके साथ उस समय सहयोग देने वालों में मदन गोपाल जी और सरदार धर्म सिंह जी थे .
अब इसमें तीन बड़े हाल , बीस कमरे जिसमे से दस कमरे ए. सी. हैं, चार कमरों में कूलर हैं और ६ कमरे साधारण हैं .यहाँ पर एक लाइब्रेरी भी हैं जिसमे कई पुस्तकें और हर रोज के कई अखबार मिलते है. इसके अलावा भवन में गरीबों और जरूरत मंद लोगों के लिए एक कंप्यूटर सेंटर ,मरीजों के लिए बिल्कुल फ्री होमोपैथिक डिस्पेंसरी और एक कांफ्रेंस हाल भी है .

सैनी भवन में बने हाल कमरों में शादी- ब्याह के ही नहीं बल्कि कई तरह के सास्कृतिक और धार्मिक आयोजन भी होते रहते हैं . बाहर से आने वाले लोग यहाँ बने कमरों को अपनी सुविधानुसार ठहरने और बाकी इंतजाम के वास्ते बुक करवा सकते हैं . इस तरह सैनी भवन की सभी सुविधाओं का चंडीगढ़ में रहने वाले ही नहीं बल्कि बाहर के लोग भी लाभ उठा सकते हैं . यह भवन हमारे माली समाज के लिए एक गौरव मई धरोहर है जिसका लाभ हमारी आने वाली पीड़ियाँ रहती दुनिया तक उठा सकेंगी ..

सैनी भवन में इस समय करीब ४५०० सदस्य हैं . इस भवन में नार्दर्न इंडिया सैनी कल्चरल सोसाइटी का सेंटर भी है जिसके प्रैसीडैंट चरणजीत सिंह चन्नी ( एक्स एम. पी. और एम. एल. ए.) , सीनीयर वाइस प्रधान श्री मेहर सिंह तहसीलदार ( सेवानिवृत) , जर्नल सकत्तर श्री प्यारा सिंह , फाइनैंस सेक्टरी श्री मल्कियत सिंह हैं .

मैनेजर परमजीत सिंह और राजेश कुमार की मदद से सैनी भवन के सदस्य और उनके परिवार के लोग कभी भी इस भवन का इस्तेमाल कर सकते हैं

कल्चरल सोसाइटी सैनी भाइयों की गतिविधियों और संदेशों को यहाँ से छपने वाली पत्रिका " सैनी दुनिया " के द्वारा जन- जन तक पहुंचाती है .पत्रिका के सम्पादक एस. अमन प्रतीक सिंह है .और सरदूल सिंह अब्रावन हैं . सैनी दुनिया के भारत के पंजाब , हरियाणा , हिमाचल प्रदेश , राजस्थान ,दिल्ली , मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश , बिहार आदि राज्यों से ही नहीं अपितु बाहर के लगभग ११ देशों इंग्लैण्ड , कनाडा ,आस्ट्रेलिया आदि से भी तकरीबन १३५० आजीवन सदस्य हैं जहाँ सैनी भाई निवास करते हैं . इस पत्रिका को प्राइमरी , मिडल , हाई , और सीनीयर सेकंडरी स्कूलों और सोशल एजूकेशन सेंटर द्वारा भी जोड़ा गया हैं . सैनी दुनिया डी. पी. आई. ( स ) पंजाब चंडीगढ़ के हुक्म नंबर , ४६६९ , एडीटर तारीख १९.१०.१९८९ के अनुसार स्कूलों के लिए प्रमाणित है .

'सैनी भवन "

पता : नार्दर्न इंडिया सैनी कल्चरल सोसाइटी , सैनी भवन , प्लाट नंबर १-२ , सैक्टर २४- सी , चंडीगढ़ १६००२३ ,फोन नंबर (०१७२- २७१५२००)


सुविधाएं : ठहरने का इंतजाम ,हाल की बुकिंग ,पार्टी का इंतजाम , शादी -ब्याह के लिए बुकिंग का इंतजाम - (0172-2715200 )



नेक चंद सैनी ( रॉक- गार्डन )
नेक चंद सैनी १५ दिसंबर १९२४ को गाँव- बरियन कलां नजदीक तहसील- शकरगढ़ (नारोवल डिसट्रीक्ट) में पैदा हुए . १२ साल की उम्र में उन्हें उनके अंकल के यहाँ गुरदासपुर जिले में पढ़ाई करने के वास्ते भेज दिया गया . वह मैट्रिक तक की पढ़ाई करने के बाद १९४३ में अपने गाँव वापिस आ गए. गाँव आने के बाद उन्होंने अपने पिताजी के खेत में काम करना शुरू कर दिया . जब १९४७ में भारत का विभाजन हुआ तो हिन्दू होने के कारण उन्हें अपने घर से बेघर होना पड़ा और अपने गाँव को छोड़ना पड़ा जो कि अब पाकिस्तान में है . वे गुरदासपुर जिले में आकर रहने लगे .
नेकचंद सैनी सरकार को अपने अच्छे भाग्य के कारण रेफूजी नौकरी देने के प्रोग्राम के तहत चंडीगढ़ में अपनी पत्नी के साथ आकर बसने का मौका मिला . चंडीगढ़ में उन्होंने १० अक्तूबर , १९५० को P . W . D . में सड़क निरीक्षक के तौर पर नौकरी करनी शुरू की. उनका पेशा आज कल एक कलाकार का है . और अब वह चंडीगढ़ में ही स्थायी निवासी के तौर पर अपने परिवार के साथ रहते हैं .बाद में उनका छोटा भाई भी यहीं आकर बस गया और आज कल वह भी अपने परिवार के साथ यहीं पर रहता है .


नेकचंद सैनी ने ना सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में बेशुमार ख्याति प्राप्त की है जोकि हम सब भारतीयों के लिए एक गौरव- शाली बात है . नेकचंद सैनी से मेरी दूर की रिश्तेदारी होने के नाते कुछेक कार्यक्रमों में उन्हें मिलने का और जानने का मौका भी मिला है . वह एक बहुत ही सीधे- सादे इंसान है . अंतर्राष्ट्रीय हस्ती होने के बावजूद भी उनके चेहरे पर घमंड या अपने उच्च पद के कोई भाव देखने को नहीं मिलते. यही एक बड़े इंसान की बद्दप्पन की निशानी है . उन्होंने रॉक गार्डन का निर्माण करके ना केवल अपना बल्कि भारत का नाम पूरे विश्व में ऊंचा कर दिया . विदेशों से भी उन्हें कई बार रॉक गार्डन की तरह का पार्क बनाने का न्योता आ चुका है . रॉक गार्डन के निर्माण से नेकचंद सैनी का नाम रहती दुनिया तक लोगों की जुबान पर रहेगा .


रॉक गार्डन चंडीगढ़ के सैक्टर एक में बना हुआ है . इसका निर्माण श्री नेकचंद सैनी ने किया .यह चालीस एकर के क्षेत्र में फैला हुआ है . १९८४ में भारत सरकार ने उनके इस अद्दभुत योगदान के लिए पदम् श्री से नवाजा था
जब चंडीगढ़ के निर्माण का कार्य शुरू हुआ तब नेकचंद को १९५१ में सड़क निरीक्षक के पद पर रखा गया था .नेकचंद ड्यूटी के बाद अपनी साइकिल उठाते और शहर बनाने के लिए आस पास के गाँवों से टूटा फूटा सामान इकट्ठा करके ले आते .सारा सामान उन्होंने पी. डबल्यू. डी. के स्टोर के पास इकट्ठा करना शुरू कर दिया .और धीरे- धीरे अपनी कल्पना के अनुसार उन टूटी हुई चीजों को आकार देना शुरू कर दिया .अपने शौक के लिए छोटा सा एक गार्डन बनाया और धीरे- धीरे उसे बड़ा करते गए उस समय चंडीगढ़ की आबादी नामात्र ही थी .वह यह काम चोरी छिपे काफी समय तक करते गए और काफी समय तक किसी की निगाह नहीं पड़ी .सरकारी जगह का इस तरह का उपयोग एक तरह से अवैध कब्ज़ा ही था इसलिए सरकारी गाज गिरने का डर हमेशा बना रहता था .एक दिन जंगल साफ़ कराते समय १९७२ एक सरकारी उच्च अधिकारी की इस पर नजर पड़ ही गई .मगर उन्होंने नेक चंद के इस अद्दभुत कार्य को सराहा .और इस पार्क को जनता को समर्पित कर दिया . उन्हे इस पार्क का सरकारी सब डीवीस्नल मेनेजर बना दिया गया .

खाली समय में पत्थर एकत्र कर उन्हें तरह -तरह की आकृतियों के रूप में संजोते हुए नेकचंद सैनी ने कभी सोचा नहीं रहा होगा कि एक दिन उनका यह काम अनोखे पार्क के रूप में सामने आएगा, जिसे देखने के लिए लोग देश- विदेशों से आएंगे। ध्वस्त मकानों के मलबे से पत्थर जुटाने का काम एक, दो साल नहीं बल्कि पूरे 18 साल तक चला।

नेकचंद अक्सर कहते हैं कि ‘‘18 बरस के समय का ध्यान ही नहीं रहा और कभी सोचा ही नहीं था कि रॉक गार्डन बन जाएगा। सरकारी नौकरी करते हुए मैं तो खाली समय में पत्थर एकत्र करता और उन्हें सुखना झील के समीप लाकर अपनी कल्पना के अनुरूप आकृतियों का रूप दे देता। ’’ अब नेकचंद की उम्र करीब 85 साल हो चुकी है और वह बेहद धीरे- धीरे बोलते हैं। धीरे- धीरे आकृतियां 12 एकड़ के परिसर में नजर आने लगीं। हर तरह की आकृतियां, नृत्यांगना, संगीतज्ञ, पशु, पक्षी, फौजी... सब कुछ। लोगों की नजर इस पर 1975 में पड़ी।

दिलचस्प बात यह है कि पूरा रॉक गार्डन रीसाइकिल की हुई अपशिष्ट सामग्री से बना है। इस अनूठे पार्क का प्रबंधन ‘‘द रॉक गार्डन सोसायटी’’ करती है। दूर- दूर से दर्शक नेकचंद की इस कला को देखने के लिए आते हैं।

वर्ष 1983 में रॉक गार्डन के शिल्पकार नेकचंद को पद्मश्री से सम्मानित किया गया और उनका अनूठा पार्क १९७३ से १९७८ तक भारतीय डाक टिकट पर नजर आया।
वह कहते हैं
‘‘अब उम्र साथ नहीं देती, वरना मैं इस पार्क में बहुत कुछ करना चाहता हूं।’’

रॉक गार्डन न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय हुआ। अमेरिका के वाशिंगटन स्थित ‘‘चिल्ड्रेन्स म्यूजियम’’ के निदेशक एन लेविन ने जब चंडीगढ़ की यात्रा में रॉक गार्डन देखा तो उन्होंने नेकचंद से अपने यहां ऐसा ही एक पार्क बनाने का अनुरोध किया। नेकचंद मान गए। वाशिंगटन में 1986 में रॉक गार्डन के लिए काम शुरू हुआ और इसके लिए शिल्प भारत से भेजे गए।


सरकार ने नेकचंद को recyclable material इकट्ठा करने में मदद की और इन्हें पचास मजदूर भी काम करने के लिए दिए थे और आजकल तो यह पार्क इतने बड़े क्षेत्र में फ़ैल चुका है कि कई मजदूर और कारीगर इसके रख रखाव में रात दिन लगे रहते है तांकि चंडीगढ़ की इस अनमोल धरोहर को संझो कर रखा जा सके. इस गार्डन में सभी मूर्तियाँ , कला कृतियाँ बेकार सामान से बनाई गई हैं जैसे कि टूटी हुई चूड़ियाँ , बोतलें , डिब्बे , तिन बिजली वाली टूटी हुई ट्यूबें , बल्ब आदि यानी कि सब काम ना आने वाला सामान यहाँ इस्तेमाल किया गया है . जिन्हें देखकर कोई भी हैरान हुए बिना नहीं रह सकता .
यहाँ पानी का एक कृत्रिम झरना भी है . इस पार्क में खुली जगह में एक आडीटौरियम भी बनाया गया हैं जहाँ पर कई मेलों और कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है .
आज कल बच्चों को भी स्कूलों में इसी दिशा में बेकार हुए सामान से आर्ट्स विषय में जरूरत का सामान बनाना सिखाया जा रहा है .
यह पार्क इतना बड़ा है कि घूमते घूमते पता ही नहीं चलता कि आप कहाँ से शुरू हुए थे और कहाँ ख़त्म होगा . एक के बाद एक छोटे- छोटे दरवाजे आते जाते हैं और सैलानी हैरानी से सब देखते हुए पार्क की भूल भुलैयां में खो जाते है .
अनुमान है कि यहाँ पर प्रतिदिन ५००० सैलानी आते हैं . भारत के बाद अमरीका में नेकचंद की कला क्रीतियों का संग्रह है और विदेशों में कई जगह उनकी कला का प्रदर्शन किया जा चुका है . दुःख की बात है कि इस पार्क को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए बहुत जद्दो जहद करनी पड़ी है .कुछ समय पहले यहाँ सरकारी गाज गिरी थी जब सरकारी आदेश पर बुलडोजर इस निर्माण कार्य को गिराने के लिए आ पहुँचे थे तब यहाँ के लोगों ने श्रृंखला बना कर इसे टूटने से बचाया था और १९८९ में अदालत ने जब फैंसला नेकचंद के पक्ष में दिया तब से इसकी ख्याति दूर- दूर तक फ़ैल गई . नेकचंद सैनी द्वारा बनाया गया यह पार्क चंडीगढ़ के लिए अत्यंत गौरव शाली बात है जो कि यहाँ कि सुन्दरता को चार चाँद लगा देता है .

"औरत की व्यथा "

"औरत की व्यथा "

परमात्मा ने इस सृष्टि में औरत को भौगौलिक और प्राकृतिक तौर पर आदमी से इस कदर भिन्न बनाया है कि वह समाज में पुरुषों के बीच आकर्षण का केंद्र बनी रहती है . उसकी काया की बनावट के चलते ही वह सुन्दरता की मूरत कहलाई जाती है . इसी भिन्नता के कारण औरत को कदम- कदम पर कठिनाइयों का सामना करना पढ़ता है . क्यों औरत को एक इंसान की तरह नहीं लिया जाता ? क्यों वह बार- बार पुरुष की शारीरिक भूख का शिकार होती है ? आए दिन जगह- जगह बलात्कार की घटनाएं सुनने में आती है . क्या किसी ने कभी सुना कि एक औरत ने एक आदमी का बलात्कार कर दिया हो ?

यदि एक औरत अपने जीवन में समाज और देश के लिए कुछ करना चाहती है तो क्यों उसे समान दर्जा नहीं मिलता ? कहने के लिए तो आज के युग में बहुत कुछ बदल गया है परन्तु इस पुरुष प्रधान समाज में औरत अपनी प्राकृतिकऔर शारीरिक भिन्नता के कारण बरसों से बलि चढ़ती आई है और चढ़ती रहेगी .
यदि एक औरत हिम्मत करके घर से बाहर निकल कर सामाजिक या राजनैतिक क्षेत्र में कुछ करना चाहती है तो क्यों उसे इज्जत की नजर से नहीं देखा जाता ? ऐसे असंख्य सवाल मेरी दृष्टि में हर औरत के मन पटल में उठते होंगे . अगर वह औरत कुछ कार्य करने के लिए आगे आती है तो पुरुष वर्ग क्यों उससे उसके औरत होने की कीमत वसूलना चाहता है? क्यों उसकी डगर इतनी मुश्किल और काँटों भरी बना दी जाती है कि वह थक- हार कर, निराश होकर घर बैठ जाए और चूल्हे चौंके तक ही सीमित रहे . क्यों उसे अपनी सुन्दरता का मौल चुकाना पढ़ता है ?जैसे कि सुन्दर होना उसके लिए वरदान नहीं बल्कि अभिशाप बन गया हो . हमारे देश में आजादी के इतने बरसों बाद भी कार्यालयों में जहाँ काफी औरतें घर से बाहर निकल कर पढ़- लिखकर समान रूप से कार्य करने लगी हैं , वहाँ अभी भी राजनैतिक क्षेत्र में कितने प्रतिशत औरतें सामने आकर देश और समाज के लिए कुछ कर पा रही हैं . और किसे पता है कि जो औरतें आज किसी मुकाम पर पहुँच गई है उन्हें कितनी दिक्कतें झेलनी पढ़ी हो और अपने औरत होने का खामियाजा ना भुगतना पड़ा हो .

क्यों पुरुष वर्ग इतना स्वार्थी है और औरत की देश के शासन में बराबर की भागीदारी नहीं चाहता ? मेरा मानना है कि यदि औरत के हाथों में शहर , कस्बे, प्रांत की भागडोर बराबर रूप से थमा दी जाए तो शायद हमारे देश में जो असख्य बुराइयां जैसे कि भ्रष्टाचार , नशा खोरी , गरीबी आदि विकराल रूप धारण कर चुकी हैं वो ख़त्म नहीं तो काफी कम अवश्य हो जाएगी .
औरत संवेदनशील होने के साथ- साथ किसी भी विषम परिस्थिति को समझने की बेहतर परख रखती है क्योंकि वह इस सृष्टि की जननी है . हमारे देश का आज जो पतन देखने को मिल रहा है और उसके बावजूद भी समाज में बदलाव नहीं आ रहा है . क्या यही सच्चाई है पुरुष प्रधान समाज की ? क्या पुरुष वास्तव में सच्चे मन से चाहते ही नहीं कि औरत घर की चार दीवारी से बाहर निकल कर शासन में हिस्सेदार बने ? अव्वल तो ऐसी कठिन डगर पर चलना और कोई मुकाम हासिल करना बहुत मुश्किल है परन्तु अगर कुछ प्रतिशत पढ़ी- लिखी महिलाएँ आगे आकर देश में ,समाज में पनप रही कुरीतियों को बर्दाश्त ना कर पाने के कारण कुछ करना चाहती है तो कदम- कदम पर पुरुषों के क़दमों तले क्यों रोंदी जाती हैं ?

"व्हाय मार्स एँड वीनस कोलाइड"

जान ग्रे द्वारा लिखित पुस्तक "व्हाय मार्स एँड वीनस कोलाइड" काफ़ी वैज्ञानिक तथ्यों और तर्कों, वितर्कों के विश्लेषण के उपरान्त लिखी एक अच्छी किताब है जिसे आदमी और औरत अपने आपसी रिश्तों में सुधार करने के लिएइस्तेमाल कर सकते हैं।

जान ग्रे द्वारा ही लिखित पहली किताब "मेन आर फ़्राम मार्स एँड वोमेन आर फ़्राम वीनस" की श्रृंखला में ही दूसरी अच्छी पढने लायक किताब है। जान ग्रे के अनुसार औरत प्राकृतिक तौर पर ही कोमल हृदय वाली और संवेदन शील होती हैइसलिए वह उपग्रह वीनस से आई है और आदमी जो कि प्राकृतिक तौर पर ही शारीरिक और मानसिक तौर पर शक्तिशाली होते है तो वह उपग्रह मार्स से आएँ है ।लेखक के अनुसार दोनों में ही प्राकृतिक और वैज्ञानिक तौर पर काफ़ीविषमताएँ रहती है, इसलिए किन कारणों से वह आपस में टकराते हैं और किन-किन बातों को ध्यान में रखकर वे अपने सम्बन्धों में सुधार ला सकते है

जान ग्रे ने इस पुस्तक में सबसे पहले प्राक्कथन में अपनी पत्नी का धन्यवाद किया है और अपने माता पिता से लेकर कई अन्य लोगों को भी सहयोग देने के लिए धन्यवाद किया है

सबसे पहले जान ग्रे ने यह कहने का प्रयास किया है कि पिछले कुछ समय से ज़िंदगी काफ़ी मुश्किल हो गई है आदमी और औरत दोनों को ही घर के निर्वाह के लिए दिन भर घर से बाहर रहकर काम करना पड़ता है जिससे सम्बन्धों मेंकाफ़ी कडवाहट आती जा रही है कार्यक्षेत्र में सफलता के बावजूद घर के वातावरण में कहीं ना कहीं आदमी और औरत एकाकीपन से जूझ रहे हैं।बहुत ज़्यादा मानसिक परेशानियों कि वजह से आदमी और औरत की एक दूसरे के प्रतिउम्मीदों में भी अंतर गया है।

प्राकृतिक अंतर के कारण आदमी और औरत का परेशानी को झेलने और हल करने का नज़रिया और तरीक़ा भी अलग है।

जान ग्रे के अनुसार अगर हम इस स्वाभाविक अंतर को बख़ूबी समझ लें तो शायद एक दूसरे को बेहतर समझने में कामयाब हो सकते हैं। इसी तरह लेखक द्वारा अलग-अलग तरीक़े अलग-अलग हिस्सों में बाँटे गए हैं जिससे आपसीसम्बन्धों को और मधुर बनाया जा सके।

प्रथम अध्याय "व्हाय मार्स एँड वीनस कोलाइड "में बताया गया है कि किन कारणों की वजह से आदमी और औरत आपस में टकराते है और आपसी सम्बन्ध कड़वा बना लेते हैं जान ग्रे के अनुसार औरत चाहती है कि आदमी भी उसीतरह व्यवहार और प्रतिक्रिया करे जिस तरह वह ख़ुद करती है उसके विपरीत आदमी ये समझने में असमर्थ रहते हैं कि औरत वाक़ई चाहती क्या है औरत का नौकरी करना आजकल एक ज़रूरत बन गया है जिससे वह भी बराबर केअधिकार चाहती है दिनभर काम-काज में थककर औरत की आदमी से पहले की अपेक्षा उम्मीदें बढ गई हैं और आदमी अभी भी चाहता है कि औरत उसी तरह व्यवहार करे जैसे पहले के जमाने में उनकी माँ या दादी किया करती थी

दूसरे अध्याय "हार्ड वायर्ड टू बी डिफरंट" में लेखक ने आदमी और औरत के प्राकृतिक तौर पर भिन्नताओं को उजागर किया है ।आदमी और औरत की परेशानी के समय प्रतिक्रिया प्राकृतिक तौर पर काफ़ी भिन्न रहती है। आदमी कापरेशानी के बारे में बातचीत ना करने का मतलब यह नहीं होता कि उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता या फिर औरत का सारे दिन के बारे में बार-बार बताने का यह अर्थ नहीं होता कि वह बहुत ज़रूरतमंद है जान ग्रे के अनुसार इन बायोलोजिकलविषमताओं को समझ लेने से हमारी मुश्किलें काफ़ी आसान हो सकती हैं। लेखक के अनुसार आदमी और औरत के दिमाग़ भी अलग-अलग तरह से विकसित होते हैं क्यूँकि दोनों को अलग-अलग परिवेश में रहना सिखाया जाता है जैसेकि हमारे पूर्वजों में औरतों और आदमियों के कर्त्तव्य भिन्न-भिन्न होते थे प्राकृतिक तौर पर आदमी और औरत के दिमाग़ एक जैसे हालात में अलग-अलग तरीक़े से बर्ताव करते हैं औरत जबकि किसी परेशानी के बारे में बातचीतकरके अच्छा सकून महसूस करती है और आदमी का दिमाग़ इसके विपरीत प्रैक्टिकल तौर पर किसी समस्या को हल करने के बारे में सोचता है।

जान ग्रे के अनुसार अगर आदमी किसी परेशानी के बारे में बात नहीं करना चाहता तो इसका मतलब यह नहीं कि वह उसे सुलझाना नहीं चाहता इसलिए यदि आदमी और औरत इन क़ुदरती बातों को समझ ले तो अपने रिश्तों में सुधारला सकते है

तीसरे अध्याय "स्ट्रेस हारमोंस फ़्राम मार्स एँड वीनस" में जान ग्रे परेशानी के समय आदमी और औरत में जो हारमोन निकलते हैं उनकी भिन्नता के बारे में बात करते हैं।लेखक के अनुसार प्यार में होना ऐसे हारमोन उत्पन्न करता हैजिससे स्ट्रेस का लेवल कम हो जाता है जब प्यार पुराना हो जाता है और एक दिनचर्या बन जाता है तो अच्छा महसूस करवाने वाले हारमोन धीरे-धीरे कम हो जाते हैं

स्ट्रेस की हालात में दो तरह के हारमोन निकलते है एड्रीनल ग्लांड से एड्रीनीलिन और कॉर्टिसोल ज़्यादा देर टक परेशानी की हालात में रहने से हारमोन शरीर में कई तरह के बदलाव पैदा करते हैं और जो कि हमारे में मानसिक तौर परबदलाव को जन्म देता है वैज्ञानिकों ने कॉर्टिसोल का रिश्ता मोटापे से किया है इसलिए लेखक के अनुसार स्ट्रेस के कारण कई तरह के नकारात्मक परिणाम उभर कर सामने आते हैं

लेखक ने आदमी में एक ख़ास तरह के सैक्स हारमोन टेस्टोस्टेरोन का ज़िक्र किया है, जो कि आदमी को ऊर्जा प्रदान करता है किसी रिश्ते की शुरुआत में आदमी को यह हारमोन काफ़ी ऊर्जा प्रदान करता है जो कि उसे औरत का दिलजीतने का चैलेन्ज देता है। जब समय से दिनचर्या बन जाता है तो हारमोन का लेवल गिर जाता है और आदमी दूसरे नए चैलेन्ज की तलाश करना शुरू कर देता है

इसके विपरीत औरत जब अपने साथी को जानती है और उसके साथ सुरक्षित महसूस करती है तो ऑक्सीटोसिन नामक हारमोन का लेवल बढ जाता है और औरत काफ़ी ख़ुशी और ऊर्जा का आभास करती है जब औरत को लगता है किउसकी उम्मीदें पूरी नहीं होगी तो ऑक्सीटोसिन का लेवल गिर जाता है और वह स्ट्रेस महसूस करती है।

लेखक ने आदमी और औरत दोनों के लिए अपने सम्बन्धों संबंधों को मधुर बनाए रखने के लिए अलग-अलग तरीक़े बताए है जिससे आदमी में टेस्टोस्टेरोन हारमोन का लेवल बढ जाए और औरत में ऑक्सीटोसिन का लेवल बढ जाए। इनतरीक़ों को अपना कर दोनों परेशानी को नज़रअंदाज़ करके ख़ुश रह सकते है।

जान ग्रे के अनुसार स्ट्रेस के समय आदमी की अपेक्षा ज़्यादातर औरतें सैक्स में बिल्कुल भी रूचि नहीं लेती।

चौथे अध्याय " वूमैन्स नैवर एँडिंग टू दू लिस्ट" में लेखक के अनुसार औरत के दिमाग़ में काफ़ी लम्बी-लम्बी लिस्ट रहती है कुछ ना कुछ करने की और उसे हैरानी होती है कि आदमी इन हालात में कैसे आराम से बैठ सकता है। चीज़ों केबारे में ना सोचकर। जान ग्रे के अनुसार औरत की शारीरिक सरंचना भी इसी तरह होती है कि उसे कुछ ना कुछ करने के लिए लगातार ऊर्जा मिलती रहती है।

यदि औरत स्ट्रेस के दौर से गुज़र रही होती है तो उसकी वसा को जलाने की क्षमता कम हो जाती है और मोटापा जाता है आदमी को औरत के लिए उसकी मुश्किलें हल करने से पहले वह सब करना चाहिए जिससे उसकाऑक्सीटोसिन हारमोन का लेवल बढ जाए और वह ख़ुश रह सके। वह चाहता है कि औरत का हालात को देखने का नज़रिया उसकी तरह बदले कुछ सालों बाद बार-बार आदमी एक ही बात सुनकर उसकी किसी बात पर ध्यान नहीं देनाचाहता है ना ही उसकी कोई मदद करना चाहता है।

जान ग्रे के अनुसार औरत कई कारणों से बाते करती हैं जिसका मुश्किल हल करने में कोई लेना देना नहीं होता औरत के हाथ में है कि वह आदमी से किस प्रकार मदद लेने में कामयाब हो सकती है।और दोनों कुछ तरीक़े अपना करअपने सम्बन्धों को सुधार सकते है। जब आदमी को लगता है कि उसके कुछ करने से मुश्किल कुछ हल हुई है और उसको औरत को मदद करने में सफलता मिली है तो उसकी हिम्मत और भी बढ जाती है।

इसमें लेखक छोटे-छोटे बलिदान करके भी अपने साथी को ख़ास और पवित्र होने का एहसास करवा सकता है। उसके अनुसार छोटी-छोटी बातो को समझ कर और छोटे-छोटे बलिदान एक दूसरे के लिए करके हम अपने सम्बन्ध सुधारसकते है यदि हम एक दूसरे की प्राकृतिक विषमताओं को समझ ले

पाँचवे अध्याय " दी 90/ 10 सोलयुशन" में लेखक ने कहा है कि स्ट्रेस की हालत में औरत को आदमी सहारा सिर्फ़ 10 प्रतिशत तक ही दे सकता है बाक़ी 90 प्रतिशत उसे ख़ुद ही हालात से बाहर आने के लिए अपनी मदद करनी पड़ती है।ऐसा होने पर आख़िरी तौर पर आदमी उसे पूरी तरह ऊपर आने में सहायता प्रदान करने में अपनी इच्छा प्रकट करता है। जब आदमी को लगता है कि उसके द्वारा की गई छोटी-छोटी बातें औरत को ख़ुशी प्रदान करती है तो उसका हौंसलाबढ जाता है और वह और करने के लिए प्रेरित होता है।

जान ग्रे ने औरतों को ख़ुद का हारमोन का लेवल बढाने के लिए 100 तरीक़े बताएँ है जिससे वह ख़ुद को स्ट्रेस रहित रख सकती है लेखक कहता है कि वीनस को बार-बार दिया गया कोई भी छोटा सा उपहार भी क़ारगार सिद्ध होता हैज़्यादातर आदमी छोटी-छोटी बातों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं जिससे बात बिगड़ जाती है। ज़्यादा नंबर लेने के लिए जान ग्रे कहते हैं कि आदमी बजाय कि दर्जन भर गुलाब एक बार दे उसे एक-एक गुलाब दर्जन बार दिया जाए तो 24 अंकप्राप्त कर सकता है। आदमी द्वारा सिर्फ़ मदद करने का पूछना भर और थोड़ा प्यार दिखाना ही औरत के लिए लाभदायक सिद्ध होता है इसमें लेखक ने आदमी के लिए भी 100 तरीक़े बताएँ हैं, जिससे वह औरत को oxytocin का लेवलबढाने में मदद कर सकता है। औरत के साथ स्ट्रेस में बातचीत करने से भी उसकी परेशानी घट जाती है।

छटे अध्याय "मिस्टर फिक्स ईट एँड दी होम इम्प्रूवमेंट कमेटी" में जान ग्रे ने आदमी के लिए टेस्टोस्टेरोन को बढाने के तरीक़े बताएँ हैं। आदमी को औरत की अपेक्षा स्ट्रेस से निबटने के लिए तीस गुना ज़्यादा टेस्टोस्टेरोन हारमोन कीजरूरत पड़ती है। आदमी का हारमोन का लेवल बढाने के लिए उसे कुछ देर अकेला छोड़ देना चाहिये, जिसे केवटाइम कहते है और उस केवटाइम में आदमी अपने लिए हारमोन का लेवल बढाने में क़ामयाब रहता है। आदमी का घर के काममें मदद करने का तरीक़ा बिल्कुल भिन्न होता है। वह एक ही काम पर एक समय पर ध्यान दे सकता है।लेखक ने इसमें दी होम इम्प्रूवमेंट कमेटी के बारे में बताया है कि औरत, आदमी से किन आसान तरीक़ों से मदद लेने में क़ामयाब होसकती है।

सातवे अध्याय "दी अनाटोमी ऑफ़ फ़ाईट" में लेखक ने लड़ाई-झगड़े के कारणों का विश्लेषण करते हुए उसके उपाय बताएँ बताएँ हैं। औरतें किसी भी मुद्दे पर सवाल पूछने और बातचीत करने में विश्वास रखती है और आदमी उस परकुछ काम करने में विश्वास रखते हैं लेखक के अनुसार जब किसी विषय पर लड़ाई होती है तो आदमी और औरत के बीच लड़ाई का मुददा बदल जाता है और अपने साथी को ही प्रॉब्लम मान लेते हैं। इसलिए जो मुददा लड़ाई का हो उसीके बारे में ही बात होनी चाहिए ताकि उसका हल निकल सके। लड़ाई-झगडे में हम अपनी भावनाओं के बारे में बताते-बताते बहस को लड़ाई में बदल देते है और ख़ुद को सही साबित करने के चक्कर में अपने साथी की ज़रूरत को नज़रअंदाज़ कर देते हैं इसलिए लड़ाई को ना सिर्फ़ प्यार से बल्कि, नर्म रवैये से हल किया जा सकता है।

जान ग्रे ने आदमी और औरत कौन-कौन सी ग़ल्तियाँ करते हैं उसमे 14 ग़ल्तियों का ज़िक्र किया है। इन ग़ल्तियों को सुधार कर हम लड़ाई-झगडे को टाल सकते हैं। भावनाओं और मुश्किलों को हल करने को मिलकर हम हालात में सुधारनहीं ला सकते हैं

आठवें अध्याय "हाउ टू स्टाप फ़ाइटिंग एँड मेकअप" में जान ग्रे ने लड़ाई को किस तरह रोका जाए उसके तरीक़े बताएँ है। लेखक कहता है कि कई बार बातचीत द्वारा लड़ाई का हल मिल जाता है परन्तु कई बार बातचीत को दरक़िनारकरके हल ढूँढा जा सकता है। कई बार तनाव में सबसे बढ़िया उपाय होता है टाइम आउट। इसमें औरत अपने साथी के अलावा किसी भी और इंसान से बातचीत करे तो बेहतर होगा। आदमी के हारमोन इस तरह बने होते हैं कि वह या तोलड़ सकता है या फिर परिस्थिति से दूर रह सकता है यानी कि fight या फिर flight ज़्यादा बातचीत भी कई बार हालात को सुधारने की बजाय बिगाड़ देती है। टाइम आउट में ख़ुद का विश्लेषण करने में मदद मिलती है। और तनाव काहल निकल जाता है। जान ग्रे टाइम आउट में आदमी और औरत के लिए तरीक़े बताता है कि उन्हें किन-किन बातो पर गौर करना चाहिए ख़ुद के मन की बातें एक दूसरे से करनी चाहिए पर यह ज़रूरी नहीं जो भी वह सोचते हैं और महसूसकरते हैं सब बता दें। एक दूसरे से माफ़ी माँगना सीखना सबसे महत्वपूर्ण ज़रिया है सम्बन्धों को सुधारने का नौंवे अध्याय "टाकिंग अबाउट फ़ीलिंग्स इन फ़ाईट फ्री ज़ोन" में लेखक कहता है कि काम करते समय अपनी भावनाओं कोपीछे रख देना चाहिए और घर पर औरत को आगे ले आना चाहिए अपनी भावनाओं का ज़िक्र आदमी और औरत को ख़ुशनुमा माहौल में करना चाहिए। जब भावनाओं की बात हो तो मुश्किलें हल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए जब औरत जितना उसे आदमी से मिले उससे ज़्यादा आदमी से उम्मीद करती है तो उसे उससे भी कम मिलता है। लेखक ने आदमी के लिए कुछ सुझाव दिए हैं वह औरत के साथ बातचीत करने और भावनाओं को ज़ाहिर करने में उपयोगमें ला सकता है। इसके विपरीत अपनी भावनाओं के बारे में बातचीत करना आदमी के लिए तनाव को दूर करने में मददग़ार सिद्ध नहीं होता

दसवें और अंतिम अध्याय "लूकिंग फार लव इन आल दी राईट प्लेसेस" में लेखक कहता है कि हमे अपने साथी से यह उम्मीद करना छोड़ देना चाहिए कि वह बिल्कुल परफ़ेक्ट हो जाए यह सबसे अदभुत और अनोखा है कि किसी को भीपूरी तरह वैसे ही प्यार करना जैसे वह है उसकी कमियों के साथ। अपनी इच्छा को ढाल लेने का मतलब यह नहीं लगाना चाहिए कि हमे कम में गुज़रा करना पड़ेगा। कभी भी हमें अपने साथी को ख़ुद की तरह बन जाने की इच्छा मत करे लेखक कहता है कि अपने टंक टैंक को 100 प्रतिशत भरने के लिए तीन जगह है जहाँ आप स्ट्रेस दूर करने वाले साधन ढूँढ सकते हैं

· पहला अपनी अंदरूनी ज़िंदगी के बारे में सोचना

· दूसरा एक सपोर्ट का नेटवर्क बनाना

· तीसरा अच्छी तरह जीना

आखिर में निष्कर्ष में लेखक ने ज़िंदगी भर प्यार रखने पर ज़ोर दिया है और उसके लिए कुछ तरीक़े बताए है जिससे उम्र भर प्यार बना रह सके। मेरे हिसाब से किताब काफ़ी बढ़िया लिखी गई है और काफ़ी अच्छी-अच्छी बातें बताई गई हैआपसी सम्बन्धों को सुधारने के लिए। परन्तु लेखक ख़ुद एक आदमी है इसलिए उसने ऐसा लगता है कि औरत को मुज़रिम की तरह एक कटघरे में खड़ा कर दिया है कि वह मानसिक तौर पर हर समय कमज़ोर रहती है और ज़्यादाभावनात्मक है और उसके विपरीत आदमी यदि निष्कर्ष निकाला जाए तो भावनात्मक बिल्कुल नहीं होते और काफ़ी प्रैक्टिकल होते हैं। लेखक के अनुसार सिर्फ़ औरत ही बात करना पसंद करती है और आदमी की बात करने में कभी भीरुचि नहीं होती ज़्यादातर जान ग्रे के अनुसार सिर्फ़ औरत को ही सहारे की ज़रूरत होती है और किस तरह से आदमी को औरत को सहारा देना चाहिए। उसके हिसाब से आदमी को औरत से भावनात्मक सहारे की कोई ज़रूरत नहीं होती जबकि हम हर जगह एक जैसे हालात और परिस्थितियों की कल्पना नहीं कर सकते कि सब आदमी एक जैसे होते हैं। लेखक ने आदमी के वजूद पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है कि आदमी काफ़ी सख़्त मिज़ाज़ होते है औरअपनी भावनाओं को कभी बाँटना ही नहीं चाहते और सिर्फ़ औरत ही बातूनी होती है।

कृति- व्हाय मार्स एंड वीनस कोलाइड

लेखक- जान ग्रे

प्रकाशक- harper collins publishers, uk

मूल्य- 295

पृष्ठ- 250

समीक्षक : अलका सैनी

मकान . १६९,

ट्रिब्यून कालोनी,

जीरकपुर, चंडीगढ़

-मेल- alkams021@gmail.com